वास्तु पुरुष की कल्पना भूखंड में एक ऐसे औंधे मुंह पड़े पुरुष के रूप में की जाती है, जिसमें उनका मुंह ईशान कोण व पैर नैऋत्य कोण की ओर होते हैं। उनकी भुजाएं व कंधे वायव्य कोण व अग्निकोण की ओर मुड़ी हुई रहती है।
धार्मिक ग्रन्थों के अनुसार वास्तु पुरुष की एक कथा है कि देवताओं और असुरों का युद्ध हो रहा था। इस युद्ध में असुरों की ओर से अंधकासुर और देवताओं की ओर से भगवान शिव युद्ध कर रहे थे। युद्ध में दोनों तरफ के योद्वाओं के पसीने की बूंदें धरती पर गिरने से एक अत्यंत बलशाली और विराट पुरुष की उत्पत्ति हुई जिसने पूरी धरती को ढक लिया।
देवता और असुर दोनों ही यह सोचने लगे कि यह उनकी तरफ से आया है और इस विस्मय के कारण युद्ध थम गया और उसके बारे में जानने के लिए देवता और असुर दोनों ने उस विराट पुरुष को पकड़ कर ब्रह्मा जी के पास ले गए।
उन्होने बताया यह आपके पसीने से उत्पन्न हुआ है इसको आप धरती पुत्र कह सकते हैं। ब्रह्मदेव ने उस विराट पुरुष को संबोधित कर उसे अपने मानस पुत्र होने की संज्ञा दी और उसका नामकरण करते हुए कहा कि आज से तुम्हे संसार में वास्तु पुरुष के नाम से जाना जाएगा। और तुम्हे संसार के कल्याण के लिए धरती में समाहित होना पड़ेगा अर्थात धरती के अंदर वास करना होगा मैं तुम्हे वरदान देता हूँ कि जो भी कोई व्यक्ति धरती के किसी भी भू-भाग पर कोई भी भवन, नगर, तालाब, मंदिर, आदि का निर्माण कार्य तुम को ध्यान में रखकर करेगा उसको देवता कार्य की सिद्धि, संवृद्धि और सफलता प्रदान करेंगे और जो कोई निर्माण कार्य में तुम्हारा ध्यान नहीं रखेगा और अपने मन कि करेगा उसे असुर तकलीफ और अड़चने देंगे। साथ हि जो भी निर्माण कार्य के समय पूजन जैसे- भूमिपूजन, देहलीपुजन, वास्तुपूजन के दौरान जो भी होम-हवन नैवेद्य तुम्हारे नाम से चढ़ाएगा वहीं तुम्हारा भोजन होगा।
ऐसा सुनकर वह वास्तुपुरुष धरती पे आया और ब्रह्मदेव के निर्देशानुसार एक विशेष मुद्रा में धरती पर बैठ गया जिससे उसकी पीठ नैऋत्य कोण व मुख ईशान्य कोण में था इसके उपरांत वह अपने दोनों हांथो को जोड़कर पिता ब्रह्मदेव व धरतीमाता (अदिति) को नमस्कार करते हुए औंधे मुंह धरती में सामने लगा उसको इस तरह धरती में समाने में विराट होने की वजह से हो रही मुश्किलों की वजह से देवताओं व असुरों ने उसके अंगों को जगह-जगह से पकड़कर उसे धरती में सामने में उसकी मदत की । अब जिस अंग को जिस देवता व असुर नें जहां से भी पकड़ रखा था आगे उसी अंग-पद में उसका वास अथवा स्वामित्व हुआ।
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